सुविख्यात लोक गायिका सुश्री नगीन तनवीर जी वर्तमान समयमें अंसल अपार्टमेंट भोपाल में निवासरत हैं। नगीन जी अपनी माता श्रीमती मोनिका मिश्रा और पिता श्री हबीब तनवीर की इकलौती वारिस हैं। जिनका लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत और रंग मंच से गहरा बावस्ता है। किसी भी गुण को सीखने और जानने के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है,खास कर शास्त्रीय संगीत में। गुरु शिष्य परंपरा के दौरान पूरे मनो योग सुर, लय, ताल की शिक्षा दी जाती है, नगीन जी कुछ इसी तरह की परंपरा से संबंध रखती हैं। नगीन जी स्कूल-कॉलेज की शिक्षा के साथ सुविख्यात रंग निर्देशक हबीब तनवीर की पारखी रचना शीलता की साक्षी बनीं। ऐसे ही कुछ अनुभवों को साझा किया है। मैं श्री सचिन चतुर्वेदी जी और डॉ. तरूणा माथुर जी की अनुराग्यम की कलायात्रा पत्रिका में मेरे साक्षातकार को ले कर, एक कलाकार की आत्मा कथा को जन-जन तक ले कर जाने की इस मुहिम को मेरा बहुत सारा आशीर्वाद, सुविख्यात लोक गायिका सुश्री नगीन तनवीर जी ने शैलेंद्र कुशवाहा (रीवा, मध्य प्रदेश) से बातचीत के दौरान अपने व्यक्तित्व को आप सब के समक्ष रखा:
नगीन जी, नमस्कार!
• आप विश्वविख्यात रंग निर्देशक, कवि, लेखक श्री हबीब तनवीर साहब जी की पुत्री हैं, एक विशाल रंग मंच आपको विरासत में मिला जिसकी धूम दुनिया ने देखी, आप अपने बारे में बताएं?
नमस्ते शैलेंद्र ! मेरा जन्म 28 नवंबर 1964 को दिल्ली में हुआ। माता पिता के साथ रह कर मैने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। तत्पश्चात स्नातक की पढ़ाई के लिए बड़ौदा चली गई, वहां मैंने संगीत से स्नातक किया। उसके बाद दिल्ली आ गई और गुरु सुलोचना बृहस्पति जी के निर्देशानुसार मैंने संगीत से एम .ए. किया। उस समय मैं उनसे संगीत की तालीम हासिल कर रही थी, तो उन्होंने ही मुझे संगीत से एम. ए. करने को कहा, तो इस तरह मैंने फिर संगीत से एम.ए. किया।
• हबीब साहब के नाटकों को अगर हम देखते हैं तो उसमें संगीत का विशेष महत्व दिखाई देता है, तो आपका लोक गायन की ओर कब से झुकाव हुआ?
उस दौरान कोई तेज़ आवाज होती थी तो मेरे कानों को बहुत कष्ट होता था । लेकिन मैं संगीत घंटों सुनती थी,खासकर शास्त्रीय संगीत। मुझे ऐसा लगता है कि संगीत से जुड़ना मेरे लिए प्राकृति कथा और हबीब तनवीर (बाबा) की मंडली ‘नया थिएटर’ में एक से बढ़कर एक छत्तीसगढ़ी कलाकार थे, जो बड़ी शिद्दत से छत्तीसगढ़ी गीत गाते थे उनके साथ मैं भी गाने लगती थी। मैं छोटी थी तो लालू बाबा, भुलवा राम, मदन लाल, माला बाई ये सब मुझे बहुत प्यार करते थे, मेरा बचपन इनकी गोद में बीता। आठ वर्ष की उम्र से मेरी दिलच स्पी लोक गायन की ओर हुई। मैं भुलवा राम, लालू बाबा, माला बाई के गानों को सुनकर बड़ी हुई। बड़ोदा से जब मैं स्नातक पूर्ण कर दिल्ली आयी तो मैंने शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत दोनों को जारी रखा।
• नगीन दीदी आपकी रंगयात्रा कब प्रारंभ हुई?
मेरी रंग यात्रा महज़ तीन साल की उम्र से शुरू हो गई थी, उस समय में मैं आगरा बाज़ार नाटक में बंदर का अभिनय करती थी। उस समय तक हबीब साहब (पिताजी) विलायत से पढ़ कर स्वदेश आ गए थे। आने के बाद ‘नया थिएटर’की स्थापना कर नाट्य मंचन करते थे, तो उस दौरान लालू राम, मदनलाल, जगमोहन, भुलवा राम आदि छत्तीसगढ़ी कलाकार मुझे बहुत मानते थे, सब मुझे बहुत प्यार करते थे, मैं उनके अभिनय को देखकर खूब हँसती थी। क्योंकि वो सब व्यंग्य प्रधान नाट्य शैली के सुलझे हुए कलाकार थे। तो एक दिन रिहर्सल के दौरान मेरी माँ ने कहा कि बेबी बंदर हंसते नहीं है (माँ मुझे घर में बेबी कहकर पुकारती थी), उस दिन से अभिनय करते समय मेरा हंसना बंद हुआ। उसके बाद जब मैं 6 साल की हुई तो बाबा कि श्तियों का चपरासी नाटक निर्देशित कर रहे थे, जो बांग्लादेश युद्ध को लेकर था, तो उसमें मैंने एक गरीब लड़की का रोल किया। जिसके बारे में एक बड़े अखबार में उस समय मेरी फोटो छापी गई थी। इसके बाद जब मैं बड़ी हुई तो बाबा ने मुझे नाटक में जोड़ दिया। सत्रह साल की उम्र से मुझे तनख़ाह भी मिल ने लगी।
• हबीब साहब के थिएटर कंपनी के अलावा और किन के साथ नाटकों में काम किया या कोई ऐसा अनुभव रहा हो?
हां, मैंने अनामिका हक्सर जी के थिएटर में दो नाटकों में काम किया। उसमें अभिनय भी किया और गीत भी गाए। उसके अलावा भी एक-दो संस्थानों में काम किया और स्नातक के दौरान कॉलेज में खूब नुक्कड़ नाटक भी किए।
• आपने बताया कि आप नाट कों में गीत गाती थीं, तो आपने लोक संगीत की शिक्षा कहाँ से ली, इसके बारे में बताइए?
हां, यह सवाल बड़ा मुश्किल है, पहली बात तो लोक संगीत की शिक्षा मैंने किसी परंपरा या किसी के सानिध्य में रहकर नहीं प्राप्त की। मैं अपना गुरुकुल नया थियेटर को ही मानती हूँ। उस दौरान नया थिएटर में कई छत्तीसगढ़ी कला कार आ चुके थे, जो बहुत ही सुरीला गाते थे। बचपन से ही मेरे कानों को लोक संगीत की धुन सुनने को मिली। मैं उनसे खूब गाने सुनती थी और नाटकों की रिहर्सल के दौरान हफ़्तों गाने का रियाज़ चलता था तो मैं भी उनके साथ गाने लग जाती। भुलवा राम की आवाज बहुत सुरीली और कर्णप्रिय थी। ऐसी आवाज की दूर बैठा व्यक्ति भी मोहित हो जाए। माला बाई की आवाज़ के कायल सभी रंगप्रेमी थे। उस ज़माने में बिहार के आल्हा गीत की टेप मंगवाई थी बाबा ने, तो उसको भी हम खूब सुनते थे।
• हमारे कलाकारों की आवाज़ तनी, खूबसूरत, सुर, लय, ताल से सजी होती थी, की कहना ही क्या ?
खासकर माला बाई की आवाज कि मैं कायल थी। इतनी ऊँची और सुरीली आवाज़ कि मैं क्या बताऊँ। हमारी गुरु सुलोचना जी ने जब माला बाई के गीत सुने, तो माला उनकी प्रिय गायिका हो गई। वो मुझसे बोलीं कि नगीन एक गांव की औरत, जिसे अक्षर का ज्ञान नहीं है, वह इतना अच्छा गा रही है, मैं तो कायल हो गई इसकी आवाज़ सुनकर। खैर इसके बाद सुलोचना जी ने मुझे लोक गायन जारी रखने के लिए विशेष रूप से प्रेरित किया । उन्होंने मुझसे कहा कि, “लोक से ही शास्त्रीय का निर्माण हुआ है जितनी भी राग- रागनियां बनी हैं, वह सब लोक की ही देन हैं, इसलिए लोक गायन को कभी मत छोड़ना। इस तरह मैंने छत्तीसगढ़ी संगीत को मंच पर प्रस्तुत करना शुरू किया ।
• हम देखते हैं कि लोक संगीत, गीत और रंगमंच की विधिवत शिक्षा आपको अपने पिता श्री हबीब तनवीर से प्राप्त हुई, तो दीदी नया थिएटर में रहकर आपने कौन-कौन से नाट कों में काम किया?
जैसा कि मैंने आपको बताया कि तीन वर्ष की उम्र से मैंने आगरा बाज़ार में अभिनय शुरू किया। इसके बाद जब मेरी पढ़ाई स्नातक की पूर्ण हुई और मैं दिल्ली आ गई तो यहां आकर मैंने बाबा के नाटकों में छोटे-मोटे अभिनय करना और गीत गाने शुरू किये। वर्ष 1983 में मैंने बहादुर कला रिन नाटक में राजा के लड़के का रोल किया । इसकी प्रस्तुति विदेश में हुई। उसके बाद मैं चरणदास चोर में गीत गाती थी और बाद के वर्षों में फिर रानी का रोल भी मिला। लाला शोहरत राय, ससुराल , राजरक्त, हिरमा की अमर कहानी, देख रहे हैं नैन आदि नाटकों में गाना गाती थी और यथा संभव अभिनय भी करती थी। बाबा के जो भी नाटक चल रहे थे उन सभी से मेरा बहुत लगाव था। दर्शकों का बेहद प्यार भी मिलता था। मजे की बात ये है कि जब हम विदेश जाते थे नाटक करने, तो जिन गोरों को हिंदी की समझ नही थी वो छत्तीसगढ़ी नाटक को इतनी उन्मुक्तता से देखते थे कि कहना ही क्या और सबसे बड़ी बात ये कि जो कलाकार मंच पर होते थे वो भाव से एक-एक दृश्य स्पष्ट करते थे। अंत में उनकी तालियों की गड़गड़ा हट हम कलाकारों को ये बता देती थी कि उनको पूरा नाटक समझ में आ गया है। इसलिए कहते हैं कि प्रस्तुति किसी भाषा की मोहताज नहीं रही।
• बहुत ही उम्दा जवाब मिला, आपसे मुझे यही आशा थी। दीदी आपने अपने जीवन काल में एक लंबा अनुभव नया थिएटर और अपने पिताजी के सन्निधाय में रहकर अर्जित किया है, हम जानना चाहते हैं कि आपको क्या कोई सम्मान भी मिला है?
मुझे राज्य सरकार या भारत सरकार से कोई सम्मान अभी तक नही मिला। हाँ, मुझे याद आ रहा है पहला अवार्ड मुझे लेडी मैकबेथ नाटक में मिला जो मैंने कोलकाता में किया था, उस समय मुझे 33,000 का चेक प्राप्त हुआ, जो मेरा पहला सम्मान था। इसके बाद मुझे जूनियर फ़ेलोशिप प्राप्त हुई। मैंने “नया थिएटर में संगीत”विषय पर अध्ययन किया। हबीब साहब और अनूप रंजन पांडेय ने मेरी मदद की थी, इस विषय पर।
• दीदी आपने किन-किन नाटकों में संगीत दिया और हबीब साहब की संगीत में कैसे मदद करती थीं?
मैंने कभी अपने आप को निर्देशक नहीं माना और न कभी कोई नाटक निर्देशित किया. हाँ, ये ज़रूर हुआ कि पढ़ाई पूरी होने के बाद मैं संगीत में बाबा की मदद करती थी। वो मुझसे शास्त्रीय गायन की धुन सुना करते थे। वर्ष 1978 में शाजापुर की शांति बाई नाटक के गीत की धुन से मैंने बाबा की मदद की। उसके बाद साल 1985 में हिरमा की अमर कहानी नाटक से ये सिलसिला लगातार चल ता रहा। कुछ नाट कों में मैंने संगीत दिया लेकिन वो नया थिएटर के नही बल्कि दूसरी संस्थाओं के थे। मेरी गुरु दीपाली नाग जी ने मुझे कई धुन सिखाई थीं। रईस लोगों के घरों में हाउस कॉन्सर्ट होता था, जैसे शीला दीक्षित जी या और भी बहुत से, तो उनके घर में पहले यह दस्तूर था कि हाउस कॉन्सर्ट मैं बड़े-बड़े गायकों (उस्तादों) को बुलाया जाता था। उस्ताद गायकी करते थे और वहां गिने चुने लोग होते थे। कई बार मैं भी ऐसे समारोह का हिस्सा बनी। वहां बड़ी- बड़ी पार्टियां होती थीं। सब उत्सव मनाते थे, दावतें होती थी और अंत में इत्र लगाया जाता था। जिसका मतलब ये होता था कि अब आप यहां से तशरीफ़ ले जाएं। ऐसी परंपरा देखने को मिली जो अब लगभग लुप्तप्राय सी हो गयी। हाँ, मैंने वर्ष 2009 में पीपली लाइव फ़िल्म में गीत गाया है, जो आमिर खान प्रोडक्शन के तले बनी थी। आमिर खान और किरण दोनों बहुत सुलझे व्यक्तित्व के हैं।
• दीदी पीपली लाइव फ़िल्म में कौन सा गीत आपने गाया और क्या अनुभव रहे फ़िल्म के?
पीपली लाइव फ़िल्म में “चोला माटी के…..“ गीत गाया। जो फ़िल्म के अंत में दिखाया गया। इस दौरान आमिर खान और उनकी टीम से जुड़ने का मौका मिला । रिकॉर्डिंग सामान्य तरीके से हुई। बाद में जब फ़िल्म प्रदर्शित हुई तो मुझे बॉम्बे में गायन के लिए बुलाया गया। मेरी इच्छा आगे भी फ़िल्म में गीत गायन की थी, लेकिन किसी ने मुझे बुलाया नहीं।
गीत चोला माटी के..
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा, चोला माटी के हे रे।
द्रोणा जइसे गुरू चले गे, करन जइसे दानी
संगी करन जइसे दानी
बाली जइसे बीर चले गे, रावन कस अभिमानी
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा…..
कोनो रिहिस ना कोनो रहय भई आही सब के पारी
एक दिन आही सब के पारी
काल कोनो ल छोंड़े नहीं राजा रंक भिखारी
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा…..
भव से पार लगे बर हे तैं हरि के नाम सुमर ले संगी
हरि के नाम सुमर ले
ए दुनिया माया के रे पगला जीवन मुक्ती कर ले
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा…..
• दीदी आपने शीला दीक्षित जी की बात की, तो हम ये जानना चाहते हैं कि आपके परिवार से उनके रिश्ते कैसे थे?
शीला दीक्षित जी के साथ बड़े प्यारे अनुभव थे। मैं उनको आंटी कहती थी। उस समय हम साउथ एवेन्यू दिल्ली में रहते थे, तो मैं और उनके परिवार के बच्चे सब साथ में खेलते थे। उस समय वह राजनीति से नहीं जुड़ी थीं, उनके पति राजनीति में थे। बाबा उस समय राज्यसभा संसद सदस्य थे और शीला ऑन्टी के ससुर श्री उमाकांत दीक्षित भी राज्यसभा सांसद थे। उनके परिवार से बहुत गहरे संबंध थे। बाबा को शीला जी हबीब भाई कहती थीं। एक बार हबीब साहब का एक्सीडेंट के दौरान कमर की हड्डी टूट गई थी, उस समय हमें और बाबा को लंदन जाना था, तो एक्सीडेंट होने के बाद उन्होंने अपने बंगले में एक महीने बाबा को रखा, तब शीला दीक्षित जी दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं और उन्होंने अपने पैसे से बाबा का इलाज करवाया, ऐसे रिश्ते थे। बाद में जब हबीब साहब 2009 में नेशनल हॉस्पिटल भोपाल में भर्ती थे, तब भी उन्होंने बाबा की बहुत मदद की। बड़ा अनूठा रिश्ता था उनके परिवार के साथ । बाबा बताते थे कि पहले 1973 में जब ससुराल नाटक तैयार हो रहा था तो लाल कृष्ण आडवाणी (एल. के. आडवाणी) अपने परिवार सहित रिहर्सल देखने आते थे। मतलब दिल्ली में जब तक ग्रुप था, तो बहुत ही अच्छा था। बाद के वर्षों में जब बाबा को रंग मंडल भारत भवन भोपाल का निदेशक बनाया गया तब हम भोपाल आ गए और तब से हम यहीं हैं।
• दीदी आपके पास जीवन के कई पहलुओं के अनुभव हैं, हम जानना चाहते है कि आपने अब तक किन-किन देशों की यात्राएं की?
हमने कई देशों की यात्रा की। वर्ष 1982 में जब चरणदास चोर नाटक को बावन मुल्कों के नाटकों में पहला पुरस्कार मिला तब से ये सिलसिला रुका ही नही। कभी अपनी मंडली के साथ, तो कभी बाबा अम्मा के साथ जाना पड़ता था । इस तरह मैंने अब तक यू.के, लंदन, रूस, जर्मनी, अमेरिका और यूरोप में कुछ देशों के संगीत और रंगमंच को नज़दीक से देखा।
• दीदी आप कई देशों के यात्राओं की साक्षी रही हैं, यकीनन आपने उस दौर को नज़दीक से महसूस किया होगा। आज डिज़िटल का ज़माना आ गया है, तो हम जानना चाहते हैं कि आपके उस दौर के अनुभव और जो दौर अभी चल रहा है इसे कैसे देखती है आप, विशेषकर रंगमंच के दृष्टि कोण से?
हां, संस्कृति में आज बहुत बदलाव आया है पहले की अपेक्षा। पहले रंग को कर्म और अनुशा सन माना जाता था। एक कलाकार अपना पूरा जीवन एक संस्थान में बिता देता था। कितनी भी विषम परिस्थिति क्यों न आ जाए चाहे जितना लड़ाई झगड़ा हो जाए, रियाज़ के दौरान कभी एहसास ही नहीं होने देते थे। नाटक की प्रस्तुति उतनी ही उम्दा होती थी। रात रातभर अभ्यास चलता। हमारे संस्थान में ऐसा माहौल था कि कलाकार अपने कमरे में बैठकर भोजन पका रहे हैं और वही से संवाद बोल रहे हैं। रंगकर्म के प्रति ये आस्था अब नगण्य है। शायद ही अब के संस्थान ऐसी तालीम देते हों। दूसरी बात आज के युवा बहुत ज़हीन और समझदार हैं। किसी भी भाव को आसानी से पकड़ लेते हैं। लेकिन अभिनय का स्तर और नाटकों के चयन में नीरसता देखने को मिलती है। अब कलाकार और निर्देशक मेहनत नहीं करना चाहते। इसलिए आज के युवावर्ग से मेरा यही कहना है कि धैर्य और सूक्ष्म विचार से सब कुछ हासिल किया जा सकता है। कल का सूरज बहुत हसीन होगा। हम इस दौर को योग अध्यात्म और आत्म चितंन से खुशनुमा बनाएं।
• दीदी यदि अपनी तरफ से कुछ कहना चाहती हैं आप या ये कहें कि आपके मन में कुछ बताने की जिज्ञासा रह गयी हो तो आप उसको बता सकती हैं?
शैलेन्द्र मेरे मन में क्या जिज्ञासा हो सकती है। बस यही कहना चाहती हूँ कि इस दौर की समाप्ति के बाद एक खूबसूरत सुबह होगी जिसका हम सभी को धैर्य के साथ इंतज़ार करना होगा। तुमने बड़ी आत्मीयता से सारे सवाल पूंछे। मुझे बड़ी खुशी है कि मेरे जवाब से तुम संतुष्ट होंगे,ऐसी मैं आशा करती हूं ।
शैलेन्द्र : बिल्कुल दीदी हम आपके जवाब से पूर्णरूपेण संतुष्ट हैं। हमारे लिए ये बहुत ही सार्थक जानकारी है।
आपने हमें समय दिया और अपने अनुभव सांझा किए इसके लिए हम आपका हृदयतल से धन्यवाद देते हैं। मुझे लगता है बहुत सारी रोचक जानकारी इस साक्षात्कार से पाठकों तक पहुँचेगी। हम पुनः आपसे एक नए संस्करण के साथ जुड़ेंगे, तब तक के लिए नमस्कार।
शैलेन्द्र : नगीन दीदी को एक बार पुनः शुक्रिया और धन्यवाद ! नमस्ते !
नगीन जी : आपको भी शुक्रिया, नमस्ते!