सरगुजा में एशिया की सबसे पहली रंगशाला है, सीता बेंगरा। सोलह सौ फीट ऊंचे पहाड़ की चट्टान को तराश कर बनी है यह रंगशाला। ऐसे मुक्ताकाशी रंगमंच (ओपन एयर थिएटर) की परंपरा वैदिक काल से शुरू हुई थी। त्रेतायुग में राम का वनवास काल और कालिदास की रामगिरी सहित ईसा पूर्व तीसरी सदी की समृद्ध सभ्यता, संस्कृति को समेटे हुए है रामगढ़ की पहाड़ियां।
छत्तीसगढ़ का सरगुजा जो अपने आगोश में समेटे हुए है युगों की गाथा, ऐतिहासिकता और पूरी अवशेष संपदा। कहा गया है कि त्रेतायुग में राम ने वनवास काल में यहां विश्राम किया था। महाकवि कालिदास की रामगिरी भी यही है, यहां बैठकर कवि ने मेघदूत की रचना की थी। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की सभ्यता के पुष्ट प्रमाण रामगढ़ की पहाड़ियों में विद्यमान हैं। यही है सीता बेंगरा, जहां होते थे नाटक और गीत-संगीत के आयोजन।
सरगुजा अर्थात सुर और गजा अर्थात देवता या सुर- संगीत और हाथियों वाली धरती। स्वर्गजा , स्वर्ग और जा अर्थात् स्वर्ग के समान वाला प्रदेश। तीसरा नाम सुरगुंजा, सुर और गुंजा अर्थात गीतों के मधुर स्वरों का गुंजन। सभी नाम सरगुजा की विशिष्टता को साकार करते हैं। सुर और संगीत की तान यहां के गुफा रंगमंच में कभी गूंजती थी। सुरम्य वन प्रकृति में हाथियों के स्वच्छंद विचरण वाली यह धरती। मुगल काल में सेना के लिए यहीं से हाथी भेजे जाते थे। रामायण काल में ‘दंडकारण्य’ और 10 वीं सदी में ‘डांडोर’ के नाम से जाने जाता रहा है आज का सरगुजा।
सरगुजा का गुफ़ा नाट्यलय – सरगुजा के गुफा रंगमंच को सबसे पहले कर्नल आउसुले ने 1848 में देखा। इसी आधार पर 1904 में डॉ.टी.ब्लास ने रामगढ़ की पहाड़ियों के पुरावशेषों का अध्ययन किया। ब्लास ने गुफा रंगमंच को भारत के महान आश्चर्य में शामिल किया और जर्मनी भाषा में इस पर विस्तृत विवरण लिखा।
पुराविद् डाॅ.टी. ब्लास ने अपनी रिपोर्ट में इसे प्राचीन नाट्यशाला बताया। ब्लास ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, “रामगढ़ की पहाड़ी में अवस्थित सीताबेंगरा गुफा स्पष्ट तौर पर ऐसे तपस्वी का आश्रय नहीं हो सकती, जो संसार से विरक्त होकर यहां पुण्यशील क्रियायों में संलग्न थे, बल्कि यह एक ऐसी जगह थी जहां काव्य पाठ होता था, यहां प्रणय गीत गाए जाते थे और रंगमंच में अभिनय होता था।”
छत्तीसगढ़ जहां गीत- संगीत, अभिनय, कला ईसा पूर्व तीसरी सदी में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुकी था। इस काल में रामगढ़ और उस के पास पास समृद्ध नागर सभ्यता रही थी। ईसा पूर्व तीसरी सदी में रामगढ़ की पहाड़ियों को तराश कर तीन वृहत् निर्माण किये गये। पहली नाट्यशाला सीताबेंगरा दूसरी गुफा चित्रकारी जोगीमारा और तीसरा आवागमन के लिए बनाई गई हाथीपोल सुरंग।
रामगढ़ पर शोध, अध्ययन – रामगढ़ की पहाड़ी और उसके समीपवर्ती ग्रामों का उल्लेख डॉ. परांजपे ने किया। रामगढ़ से पूर्व दिशा में लक्ष्मणगढ़ एवं सन्नी बर्रा, पश्चिम में बिशुनपुर, डाॅडगांव एवं दाव है। उत्तर में मृगादाव एवं बेलढंब और पश्चिम में चकेरी गांव हैं। पुरातात्विक दृष्टि से जितना महत्व रामगढ़ का है उतना ही महत्वपूर्ण है चकेरी गांव।
ऐतिहासिक स्थलों का वर्णन करते हुए डॉ.वी.के.परांजपे ने अपने शोध पत्र ‘ए फ्रेश लाइन ऑफ मेघदूत’ 1960 में कहा है, “तलहटी से लगभग 16 सौ फीट की ऊंचाई पर रामगढ़ का पठारी भाग है। पठार पर मढ़ियानुमा बना है देवालय, जिसके गर्भगृह में राम-सीता सहित लक्ष्मण और विष्णु की मूर्तियां स्थापित हैं। मूर्तियों का शिल्प मथुरा शैली में है, जिनका प्रभामंडल आज भी नवीन सा लगता है। मंदिर के सामने वर्गाकार शिलाखंड पर उत्कीर्ण हैं चरण चिन्ह, जिन्हें पुजारी सीता के पद चिन्ह कहते हैं।”
मंदिर के समीप बना हुआ है चंदन सरोवर, जहां परांजपे ने कई मूर्तियां खोज निकाली। एक खंडित मूर्ति के टुकड़े को जोड़कर देखने पर उन्हें पता चला कि वह बुद्ध की मूर्ति थी। वहीं कमर में घड़े को लिए महिला की प्रतिमा, सपेरे की मूर्ति भी मिली। नाट्यशाला का उल्लेख पंराजपे के शोध पत्र में नहीं हुआ।
अरण्य का गोपन – रामगढ़ की नाट्यशाला पर ममगैन लिखते हैं, “रामगढ़ की नाट्यशाला निश्चित ही एशिया की प्राचीनतम नाट्यशाला है। यहां पंच विधान, पर्ण परिधि, दर्शक दीर्घा, कौतुभ मंडल, कर्णाक्ष छिद्र, ध्वनि रूपलक, आदि की सारी व्यवस्था का ध्यान नाट्यशाला के निर्माण में सुनिश्चित किया गया है। विशेष अवसरों पर यहां नाटकों का मंचन किया जाता रहा होगा।”
सरगुजा में राम – त्रेतायुग में राम लक्ष्मण और सीता सहित अपने वनवास काल में दक्षिण भारत की यात्रा के समय यहां विश्राम किया था। इस बात का उल्लेख सरगुजा गजेटियर में किया गया है,
” Ram himself used to live during Exile.”
“Tradition says that sito used to reside in the cave known as ‘Sita Bongra’ the Rehand or Renu River which flows is not very far from the foot of the hill.”
वाल्मीकि रामायण – महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में वर्णित करते हुए लिखा है कि राम ने प्रयाग प्रस्थान कर चित्रकूट में वनवास किया। चित्रकूट प्रयाग के भारद्वाज ऋषि आश्रम से दस कोस दूर है। जिन्होंने रामायण में लिखा है-
दशक्रोश इतस्वावत गिरिर्यसि्मनि्नवत्स्यासि।
चित्रकूट इति ख्यातो गंधमादन सनि्नभः।।
कालिदास की रामगिरी – कवि कालिदास ने राम के यहां आने का उल्लेख करते हुए मेघदूत के प्रथम श्लोक में लिखा है,
कशि्चतकान्ता विरह गुरुणा स्वाधिकारात प्रमंत:
शापेनास्तंगमित महिमा वर्ष भोग्येण भर्तु:।
यक्षश्चक्रे जनकतनया स्नान पुण्योदकेषु
सि्नग्धछायातरुष वसति रामागिर्यीश्रमेषु।।
महाकवि कालिदास ने मेघदूत की रचना यहीं की थी। कालिदास ने निर्वासित यक्ष बनकर खुद अपनी विरह वेदना को जिस स्थल पर लिखा यह वही रामगिरी है। यक्ष ने अपना प्रणय संदेश मेघ को दूत बनाकर मानसरोवर स्थित अलकापुरी में अपनी प्रियतमा के पास भेजा था।
कालिदास ने ‘मेघदूत’ में ‘सीता कुंड’ का वर्णन किया है। यही पुख्ता आधार है कालिदास की रामगिरी होने का। हाथीपोल सुरंग के भीतर पहाड़ से रिसकर एक शीतल जल कुंड बना है जिसे सीता कुंड कहा जाता है।
‘मेघदूत’ में यक्ष के अलकापुरी जाने का मार्ग रामगढ़ के भौगोलिक परिवेश से संबद्ध है। पुराविद डॉ. कृष्ण दत्त वाजपेई ने रामगढ़ का सर्वेक्षण कर यही सिद्ध किया है।
भौगोलिक दृष्टि से दक्षिण- पश्चिम मानसून की दिशा लगभग वही है जिस दिशा से मानसूनी हवाओं के प्रभाव में आकर बादल अपना मार्ग बनाते हैं। डॉ. वाजपेई ने रामगढ़ को इस आधार पर ही मेघदूत की रचना स्थली बताते हुए लिखा है,
“As regards the the location of ramgiri it is more plausible in identify it with the hillock of ramgarh in the sarguja district of madhy Pradesh then with any other site. The internal evidence particularly from the meghdoot support this identification. The hillock of ramgarh with the pooramic me beauty around talies with its enchanting description given by kalidas in Verses 1-4, 12 and 14 of the megood.”
लोकगीत में राम – सरगुजा के लोकगीतों में, किंवदंतियों में राम की महिमा गाई जाती है। राम को महिमामंडित करते हुए यहां के कई स्थलों के नाम भी रखे गए हैं। रामगढ़ की पहाड़ियां, सीता बेंगरा, जोगीमारा, लक्ष्मण बेंगरा, सीता कुंड राम से ही जुड़ा है।
त्रेतायुग में सरगुजा क्षेत्र घनघोर जंगलों से परिपूर्ण था। जंगलों में ऋषि-मुनि आश्रम बनाकर रहते थे । वनवास काल के दौरान राम ने उन राक्षसों को मारा जो ऋषि मुनियों को सताते थे। सरगुजा के लोकगीतों में ऐसा ही वर्णन मिलता है,
“चउदह बछर विपत्ति ला बितावें
रामगढ़ परबत में घर ला बनावें
बनवासे करण बने राम चले।”
सीता बेंगरा रंगमंच – सीता बेंगरा नाट्यशाला आज के थिएटर जैसी बनी है जहां नेपथ्य, रंगपीठ, रंगशीर्ष आदि हैं। सीता बेंगरा गुफा नाट्यालय तक पहुंचने के लिए बनी है 15 सीढ़ियां, इन सीढ़ियों से चढ़कर गुफा में पहुंचते हैं और सामने दिख पड़ता है 17 फुट चौड़ा गुफा नाट्यालय का प्रवेश द्वार, जिसका उपरी भाग गोलाई लिए हुए हैं। नाट्यशाला 46 फीट लंबाई लिए हुए और 15 फीट चौड़ी है जिसकी ऊंचाई 9 फीट है। पर्दे और खंभे लगाने के लिए दीवारों में दोनों और गड्ढे बने हुए हैं। नाट्यालय की दीवारों से लगकर दर्शकों के बैठने के लिए बनी हैं पत्थरों की असंदिया ।मंच का निर्माण तीन मेघियों पर किया गया है जो ढालनुमा है।
नाट्यशाला के प्रवेश द्वार का बाजू भाग दो पीठिकाओं वाला 8:30 फीट चौड़ा है। द्वार के पीछे की पीठिकाएं अन्य पीठिकाओं की तुलना में नीची बनी हैं। दीवारों से लगकर पत्थरों के छोटे-छोटे आसन बने हुए हैं। गुफा से बाहर की ओर दीवार में छेद बने हुए हैं, जहां लकड़ी लगाकर पर्दा लटकाया जाता रहा होगा ।
सीता बेंगरा ऐसी नाट्यशाला जहां नेपथ्य, रंगपीठ रंगशीर्ष आदि हैं यह भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में वर्णित रंगशाला जैसी बनाई गई है। ईसा पूर्व तीसरी सदी में यहां नाटक,गीत- संगीत के आयोजन होते थे। यह एक ऐसा स्थान था जहां काव्य -पाठ होता था, प्रणय गीत गाए जाते थे और रंगमंच में अभिनय होता था।
सीता बेंगरा को सुंदर ढंग से अलंकृत भी किया किया गया है, जिसे आज भी देखा जा सकता है। गुफा के प्रवेश द्वार के ऊपरी हिस्से में तीन फुट आठ इंच पर दो पंक्तियां (जिसमें ढाई इंच अस्पष्ट हैं) उत्कीर्ण हैं। पाली भाषा (ब्राह्मी लिपि ) में उत्कीर्ण कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं।
“आदि पयंति हृदयं । सभावगरु
कवयो ये रातयं…..
दुले वसंतिया।
हासावानु भूते।
कुद स्पीतं एवं अलंगेति।”
उपरोक्त पंक्तियों का हिंदी में भावानुवाद डॉ. संतलाल कटारे ने किया। 1933 के दौरान लखनऊ से निकलने वाली पत्रिका माधुरी में इसे प्रकाशित किया गया। लोचन प्रसाद पांडे ने अपनी कृति, ‘कोसल -प्रशस्ति रत्नावली’ में इसे समाहित किया।
“हृदय को आलोकित करते हैं
स्वाभाव से ऐसे कविगण
रात्रि में…..
वासंती दूर है।
हास्य और विनोद से प्रेरित
चमेली के फूलों की मोती माला को ही
आलिंगन करते हैं।”
सीता बेंगरा की गुफा में लिखी पंक्तियों में परिकल्पना की गई है, जहां मनुष्य कोलाहल से दूर एकांत, रात्रि में नृत्य संगीत, हास परिहास की दुनिया में, स्वर्गिक आनंद में अलिप्त हो, पुष्पों की भीनी खुशबू से मोहित हो उसे आलिंगन करता है।
जोगीमारा गुफा – सीता बेंगरा के बगल में पहाड़ी के दक्षिण ढलान पर स्थित है जोगीमारा गुफा। यहां ईसा पूर्व तीसरी सदी के जनजीवन के भित्तिचित्र देखे जा सकते हैं। जोगीमारा गुफा 30 फुट लंबी 15 फुट चौड़ी और 9 फुट ऊंचाई वाली है। गुफा के भीतरी दीवारों पर चिकना लेप कर उस पर बनाए गए हैं तरह-तरह के भित्तिचित्र। गुफा की छत भी आकर्षक रंग-बिरंगे चित्रों से सुसज्जित है।
गुफा में उत्कीर्ण भितिचित्र के एक दृश्य में वृक्ष के नीचे बैठा हुआ पुरुष जिसकी बांयी ओर हैं नृत्य करती कन्याएं। दूसरे दृश्य में एक तेजस्वी पुरुष बैठा है उसके निकट वस्त्र पहने तीन पुरुष तैनात हैं, रक्षक की तरह। तीसरे दृश्य में रक्षक सहित दो पुरुष को उत्कीर्ण किया गया है।
भित्तिचित्र की अन्य दृश्यावली में चैत्याकार खिड़की वाला घर है नीचे के भाग में, जिसके सामने एक हाथी के समक्ष तीन पुरुष खड़े हैं उसके रक्षण में । इसी के समीप बना हुआ है तीन घोड़ो का छत्रवाला रथ।
ज्यामिति अलंकरणों के साथ गुफा की दीवार, पशु-पक्षी, मछली, मकराकृति, देव, दानव के चित्रों से सुसज्जित है। गुफा के ऊपरी व भीतरी छत पर लाल, पीले,हरे व काले रंगों में अलंकरण है। कहीं-कहीं प्राचीन चैत्य वातायनों को भी उकेरा गया है।
जोगीमारा के अधिकांश चित्रों में भरे गए हैं गेरुआ रंग। भित्तिचित्रों में कपड़ों और आंखों को उभारने के लिए सफेद रंग का इस्तेमाल किया गया है। बालों के लिए काला रंग लिया गया है। यहां पर विविध विषयों के भित्तिचित्र साकार करते हैं एक पूरे परिवेश को। भित्तिचित्रों को देखने पर कहीं कहीं ऐसा भी लगता है कि पुराने चित्रों के ऊपर उन्हें नया रूप देने की कोशिश की गई है।
जोगीमारा के गुफा चित्रों को निहारने वाले आश्चर्यचकित हो उठते हैं, जिन्हें देखकर प्रतीत होता है कि तत्कालीन साहित्य, कला, सामाजिक वातावरण, मानवीय कला संचेतना और भावनाओं का उत्कर्ष वैभवशाली रहा होगा।
जोगीमारा गुफा में बने भित्तिचित्र ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के हैं। गुफा के रंगीन चित्रों के आधार पर इतिहासकार डॉ. हीरालाल इन्हें बौद्ध धर्म से संबंधित बताते हैं। रामकृष्ण दास के अनुसार यहां की चित्रकला का संबंध जैन धर्म से है क्योंकि इस में से कुछ चित्र का विषय जैनों से संबंधित है। पद्मासन लगाए हुए एक व्यक्ति का चित्र है। बौद्धों में इस मुद्रा का विकास बहुत बाद में हुआ। चित्रों के निम्न भाग में एक चैत्याकार आगार है जिसमें खिड़की स्पष्ट दिख रही है।इन चित्रों को कलिंग शासक खारवेल ने बनवाया जो जैन धर्मावलंबी राजा था।
प्रेम अभिलेख – नाट्यशाला का संचालन देवदासी सुतनुका के हाथों में था। सुतनुका को शिल्पकार देवदीन से प्रेम हो गया। नाट्यशाला की मर्यादा के विपरीत था, आपस में इस तरह का प्रेम। प्रेम प्रसंग के कारण सुतनुका और देवदीन को राजकीय कोप भाजन से दो-चार होना पड़ा। तत्कालीन राज्य के अधिकारियों ने चेतावनी देते हुए उनकी प्रणयगाथा को गुफा में अंकित करवा दिया ताकि भविष्य में ऐसे संबंध की पुनरावृत्ति ना हो। देवदीन और सुतनुका की प्रणयगाथा ब्राह्मी लिपि में गुफा की दीवाल पर अंकित की गई है, जो इस तरह हैं,
“सुतनुका नाम
देव दर्शिका
तं कमयिथ वलन शेये
देवदिने नाम लुपदखे”
अर्थात् “सुतनुका नाम की देवदासी को देवदीन ने प्रेमासक्त किया। मूर्खतावश वाराणसी के श्रेष्ठ देवदीन नाम के रूप दक्ष ने” पुराविद राय बहादुर हीरालाल ने रूपांतरित इस तरह किया, “यहां रूपदत्त देवदीन ने सुतनुका नामक देवदासी की कामना की।”
प्राचीन शिल्पकार देवदत्त – देवदासी सुतनुका की ओर आकर्षित हो देवदत्त मोहित हो गए थे। सुतनुका अपने समय की प्रसिद्ध नृत्यांगना थी। जोगीमारा गुफा के भित्तिचित्र पर उत्कीर्ण पंक्तियां देवदत्त और सुतनुका की स्मृतियों को संजोए हुए हैं।
देवदत्त अपने समय के प्रसिद्ध शिल्पकार थे।हीरालाल शुक्ल कहते हैं, ” प्रदेश के कलात्मक वैभव के आदि पुरुष देवदत्त हैं, जिन्हें भारत के प्रथम ज्ञात ‘रुपदस’ शिल्पकार होने का गौरव हासिल है । जो ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में रामगढ़ अभिलेख में सादर स्मरण किए गए हैं। भारत के शेष कलाकार इन्हीं देवदत्त के उत्तराधिकारी हैं।”
हाथीपोल सुरंग – सीता बेंगरा के पार्श्व भाग में आवागमन के लिए बनाई गई है हाथीपोल सुरंग। सुरंग का प्रवेश द्वार 55 फीट ऊंचा जिसमें हाथी भी गुजर सके जो 180 फीट लंबी है। रामगढ़ की पहाड़ी के पार से सीता बेंगरा पहुंचने के लिए इसी सुरंग से आते हैं।
रामगढ़ की पहाड़ी का वैभव – रामगढ़ की पहाड़ी के गुफा नाट्यालय सीता बेंगरा और जोगीमारा का प्राचीनतम उल्लेख मिलता है व्हेनसांग के वृतांत में। सुप्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग सातवीं सदी में पहुंचा था महाकौशल क्षेत्र में। इस दौरान बौद्ध धर्मावलंबी छत्री राजा था, जिसकी राजधानी भद्रावती (भाण्डक) थी, जो वर्तमान में चांदा जिले में स्थित है।
सीता बेंगरा नाट्यशाला को 1848 में देखा कर्नल आउसुले ने। 1904 में डॉ. टी ब्लास ने रामगढ़ की पहाड़ियों के अवशेषों का अध्ययन कर इसे दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया।
सीपी व बरार के उत्कीर्ण शिलालेख में सीता बेंगरा व जोगीमारा लेख के मूल पाठ को रूपांतरित कर प्रस्तुत किया है रायबहादुर हीरालाल ने, जिन्होंने छत्तीसगढ़ के बौद्ध विहारों और चैत्यों का वर्णन किया है। पुरातत्वविद जे.डी. बेलगर और ए. कनिंघम के संयुक्त लेखन ‘भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण’ के बारहवें में खंड में विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है रामगढ़ की गुफाओं का। पुराविद् कृष्ण दत्त वाजपेई के अध्ययन की रिपोर्ट भी पठनीय है। ‘भारतीय चित्रकला का विकास’ के लेखक आर.ए. अग्रवाल ने गुफाओं के भित्तिचित्रों का सूक्ष्म विवेचन किया, जिन्होंने यहां के भित्तिचित्रों का काल निर्धारण ईसा पूर्व 310 वर्ष
निर्धारित किया है।
बीसवीं सदी की शुरुआत में जिस रामगढ़ को पुराविद् ने भारत के महान आश्चर्य में गिना था उस रामगढ़ से दुनिया आज भी अनजान हैं।
रामगढ़ की पहाड़ी जिसके आसपास ईसा पूर्व तीसरी सदी की उन्नत नागर सभ्यता विद्यमान थी। समृद्ध नगर होने के प्रमाण यहां सर्वेक्षणों में मिले हैं। ईटों की दीवारें, बर्तन के टुकड़े मनके, सिक्कों के साथ पाए गए हैं। यहीं पर लोहा गलाने वाली भट्टी भी मिली है जिसमें प्राचीन काल में लोहा गलाया जाता था।
छत्तीसगढ़ की प्राचीन विरासत को संजोए सरगुजा के इतिहास को नए सिरे से खंगालने की जरूरत है।
संदर्भ सूची –
1 मदन लाल गुप्ता, छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन, पृष्ठ 118
2 डॉ.टी.ब्लॉस, केव एंड इंक्रिप्शन इन रामगढ़ हिल्स, आर्कलॉजिकल रिपोर्ट 1903- 4 पृष्ठ 123- 131
3 डी पेटसर्न, डिस्कवरी आफ छत्तीसगढ़, पृष्ठ 64
4 डॉ. वी.के. परांजपे, ए फ्रेश लाइन ऑफ मेघदूत 1960
5 डॉ. पी. एस.ममगैन, अरण्य का गोपन, रिपोर्ट देहरादून फॉरेस्ट एकेडमी, 13 सितंबर 1991
6 सरगुजा गजेटियर
7 वाल्मीकि रामायण 2/54/28-29
8 कालिदास, मेघदूत, श्लोक 1
9 डॉ. भगवती लाल पुरोहित, सरगुजा का रामगढ़ तथ्य भारती अगस्त 2007, पृष्ठ 38
10 डॉ. कृष्ण दत्त वाजपेई, सागर विश्वविद्यालय रिपोर्ट, 1983, देखें संदर्भ सूची 14
11 उपरोक्त दो
12 ललित शर्मा, रामगढ़ सुतनुका देवदासी और देवलीना रुपदक्ष,ललित डॉट कॉम,15जून 2012
13 प्यारेलाल गुप्त प्राचीन छत्तीसगढ़, पृष्ठ 36
14 विद्याभूषण, थियेटर आफ हिंदूज, पृष्ठ 210
15 रविन्द्र गिन्नौरे, संसार की पहली रंगशाला, दैनिक भास्कर दीपावली विशेषांक, 1991 पृष्ठ 121
16 डॉ. हीरालाल शुक्ल, छत्तीसगढ़ का जनजाति इतिहास पृष्ठ 217