साक्षात्कार : कलाकार डॉ. ध्रुव तिवारी

डॉ. ध्रुव तिवारी जाने माने अंतराष्ट्रीय चित्रकार है, अनुराग्यम् के वरिष्ठ सलाहकर है और केंद्रीय विद्यालय क्रमांक 1 रायपुर में कलाशिक्षक (आर्ट एजुकेशनिस्ट) के पद पर कार्यरत हैं। शिक्षा ‘इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय’ से बीएफए, एम एफ ए, क्रिएटिव पेंटिंग में एमएफए तथा बस्तर की लोक कलाओं पर आधारित शोध पर डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की।

डॉ ध्रुव तिवारी जी की महत्वपूर्ण उपलब्धियांः प्रारंभिक दौर में ‘भारत भवन’ भोपाल के ‘रूपंकर विभाग’ में ग्राफिक का काम करते हुये आपने थिएटर के लाईट एण्ड साउण्ड और नाटक की बारीकियों को समझा। ‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय’ भोपाल में वरिष्ठ कलाकार के तौर पर कार्य किया। दिल्ली पब्लिक स्कूल भिलाई, नवोदय विद्यालय चुरहट, के कला विभाग में भी कार्य किया तथा वर्तमान में केंद्रीय विद्यालय रायपुर में कार्यरत हैं। एनसीईआरटी में मास्टर ट्रेनर व केंद्रीय विद्यालय संगठन नई दिल्ली के कलाध्यापकों को संसाधक के रूप में ट्रेनिंग देने का कार्य दुश्वञ्ज मुंबई, मैसूर, ग्वालियर आदि में किया। ‘अनुराग्यम्’ कला एवं साहित्य के लिए समर्पित संगठन में सलाहकार रहे तथा टॉक शोज में शामिल हुए पनाश एनजीओ के साथ टॉक शोज़ करते रहते हैं। सत्य टॉक शोज़ पर कई दिलचस्प कार्यक्रम तथा कला फिल्म एवं मॉडलिंग का कार्य राष्ट्रीय व् अंतरराष्ट्रीय स्तर के कार्य कई संगठनों से जुड़कर करने का आपको अवसर मिला, ग्रुप व सोलो शोज, कई गैलरी तथा एयरपोर्ट और मॉल पर भी आपने सोलो शोज़ किए हैं। देश के विभिन्न राज्यों में अपनी कलाकृतियों का प्रदर्शन किया है साथ ही कई समूह प्रदर्शनी का भी आप हिस्सा रहे हैं। तथा आपको कई पुरस्कारों से पुरस्कृत किया जा चुका है। रायपुर में कला शिक्षक के रूप में आप अपनी कला शक्ति को बच्चों में बांट रहे हैं।

सर आपकी कला यात्रा की शुरुवात कब कैसे और कहां से हुई?

छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गांव में, मैंने ग्रामीण वातावरण को बखूबी जिया। गांव के लोग, प्रकृक्ति संस्कृति, तीज-त्यौहार, रहन-सहन, तौर-तरीके प्रक्ति की निश्चलता को महसूस किया। धरती माता की गोद में खेलते हुये नदी-नाले खेत खलिहान, गली-पगडंडी पेड़-पौधे, पालतू पशुओं के बीच मैं पला बढ़ा। जब कला और कलाकार की परिभाषा से भी अनभिज्ञ था तभी से सहज कला की और मेरा झुकाव और जुड़ाव होता गया।

गांव के किसी भी कार्यक्रम में सजावट करना हो प्राथमिक रूप से उपलब्ध वस्तुओं लेकर ही उसमें रम जाता और पूरा करता ऐसा करते हुए ही मेरी कलायात्रा की शुरुआत हुई। जो 1985 में ‘इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़’ पहुंचकर और परवान चढ़ी। जब से कला के प्रति समर्पण भाव आया तब से आज तक अर्थात पिछले 35 सालों से कला को एक जिज्ञासु छात्र की तरह समझने का प्रयास कर रहा हूं। प्रकृति से प्रभावित होकर मैंने बस्तर के आदिवासियों के बीच जाकर काम किया बस्तर की लोक कला का रूपप्रद कला के संदर्भ में एक शोध किया। जिससे अपनी कला पर मेरा आत्मविश्वास बड़ा और कार्य करने की शैली भी प्रभावित हुई। मैंने चित्रों में प्रकृक्ति चित्रण पर ही ध्यान केंद्रित किया रंगों का संयोजन दूरी का आभास, पहाड़ों का भारीपन तथा रेखाओं की गतिशीलता मेरे चित्रण में बहुत ही महत्वपूर्ण रूप से परिलक्षित होती है। मैने आदिवासियों के मृतक स्तंभों पर भी शोध किया मेरी कलाकृक्तियों में इसका प्रभाव स्वाभाविक रूप से दिखता है तथा उन स्थलों की जानकारी भी मैंने अपनी कला के माध्यम से लोगों तक पहुंचाई। केंद्रीय विद्यालय संगठन तथा एनसीईआरटी ने मेरी काबिलियत पहचाना और मेरी सेवाएं सेवाकालीन कलाकारों के प्रशिक्षण संसाधक के रूप में लेना शुरू किया। इससे बाकी शिक्षकों को भी अच्छी जानकारी प्राप्त होती रही।

कला को कैरियर या पढ़ाई के एक विषय के रूप में चुनने को आज भी सहज स्वीकार्यता नहीं है आपके लिए कैसे संभव रहा?

कला में मन रमता था इसलिए स्कूली पढ़ाई को लेकर मैं गंभीर नहीं था। पेड़ों पर बैठकर पढ़ता था पेड़ों के गोंद इक्कठे कर पिता के पास उपलब्ध रंगों को उनमें घोलता और अन्य कलात्मक चीजों में प्रयोग करता था। खुद ही गणेश की प्रतिमा बनाता मंडप सजाता। मेरा बचपन आम था पर परिस्थियां आम नहीं थीं। मैट्रिक पास करके मैं बहुत खुश हुआ। जे जे स्कूल में पढ़ना चाहता था पर..। ग्रेजुएशन करते हुए ही खैरागढ़ में एडमिशन लिया । परिवार में पिता और चाचाओं का लाडला था। सबने मिलकर मेरी इच्छा और मेरे स्वाभिमान को महत्व दिया। छोटी उम्र से मैं कला क्षेत्र से जुड़कर अपने खर्चे निकाल रहा था आगे भी मेरी कोशिश जारी रही।

बच्चों को चित्र की शिक्षा कब और किस तरह देनी चाहिए?

बच्चों में प्रतिभा का भंडार भरा होता है जिसे बाहर निकालने की जरूरत है वैसे ही जैसे कुएं से पानी निकाला जाता है। उसमें पानी भरा नहीं जाता। बच्चों को रंगों से खेलने दिया जाना चाहिए उन्हे सीखाने की जरूरत नहीं है उसे खुद समझने और रचना करने की फीडम देकर देखें वो श्रेष्ट देगा। बच्चों के ड्राइंग टीचर मां बाप की इच्छा का ध्यान रखकर उसे सीखाते हैं बच्चा तारीफ की इच्छा करता है। पेंटिंग करने की चीज है सीखाने की नहीं। बच्चे गुगल से चिपक गए हैं। उन्हें सब रेडीमेड मिल रहा है। इसलिए क्रिएट करने कहा जाय तो उनसे नहीं होता।

क्या कला से जीविकोपार्जन संभव है?

जो तैरना जानता है उसे गहराई से कोई लेना देना नहीं है और जो डरेगा वो गहराई नापेगा। हर क्षेत्र में असीमित संभावनाएं हैं प्रतिभावान स्वयं अपना अवसर गढ़ते हैं और मुकाम बना लेते हैं। सबके रास्ते एक से नहीं हो सकते। आपके प्रेरणास्त्रोत और मार्गदर्शक कौन रहे? मैं अपना गुरु खुद ही रहा जीवन की परीक्षाओं से सीखता रहा। जीवन में एक गुरु का होना जरूरी है। जो आपके जीवन की बहती धार को निरपेक्ष रहकर दिशा दे सके। हां, कैरियर के लिए अलग विशेषज्ञ हो सकते हैं। पर सिस्टम को आपको खुद ही समझना होगा।

आपके नाम अनेकों उपलब्धियां हैं पर आप अपना महत्वपूर्ण कार्य/उपलब्धि किसे मानते हैं?

गांधीजी की 150वीं जयंती नई दिल्ली में मनाई गई गुजरात के लोगों को हुबहू साबरमती आश्रम बनाने का काम सौंपा गया था उन्होंने इस काम के लिए आयोजकों से मुझे मांगा मैं छत्तीसगढ़ से अकेला चयनित हुआ। मैंने गांधीजी का ओरिजनल चरखा लाया प्रयोग किया जिसके लिए मुझे सम्मानित किया गया था। कैमलीन पिडिलाइट जैसी कंपनी सम्मान करती है। देश भर के बच्चों और कला शिक्षकों को ट्रेनिंग देता हूं। यह सारे काम बहुत जिम्मेदारी और महत्वपूर्ण लगते हैं दुनिया छोड़ने से पहले मैं कला संस्कृति और संस्कार की विरासत सौंपकर जाना चाहता हूं।

साक्षात्कारकर्ता – मेनका वर्मा

भिलाई, छत्तीसगढ़, भारत

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