कविता – माँ का आंचल : डॉ सुनीता फड़नीस

मसालों की सुगंध से महकता,
चूल्हे से गर्म बर्तन को उठाता ।

रोते बच्चों के आँसू वह पोंछता ,
खेलने के बाद पसीना पोंछता।

हाथ पोंछने का नैपकिन बनता,
गोल लपेट कर आँख को सेंकता

नन्हों के लिए गोद में चादर बन जाता,
बच्चों के लिए आँचल की ओट बन जाता

शर्म आती तो मैं आँचल से मुँह ढँक लेती,
पल्लू पकड़ उसके पीछे-पीछे जाती

सर्द मौसम में मैं उसे आसपास लपेट लेती,
बारिश में माँ मुझे आँचल में छुपा लेती ।

मंदिर से माँ रोज़, प्रसाद आँचल में बाँध लाती,
कोई चीज गुमने पर पल्लू में गांठ लगाती ।

काम करते वक्त अक्सर पल्लू खोंस लेती ,
कभी-कभी थोड़े रुपए भी बाँध कर रखती ।

शाम तक मैला हो जाता आँचल
अब तो गुम गया मां का आँचल

डॉ सुनीता फड़नीस
इंदौर, मध्यप्रदेश

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