साहिर लुधियानवी एक अधूरा प्रेमी – प्रियंका गहलौत

प्रियंका गहलौत (प्रिया कुमार) – लेखिका/समीक्षक – मुरादाबाद

अमृता प्रीतम.. कहती थी कि साहिर को अपने लिए काम्प्लेक्स था कि वो खूबसूरत नहीं हैं। ये पंक्ति मैंने उनकी पुस्तक “रसीदी टिकट “ में पढ़ी थी और मैंने पहली बार साहिर लुधियानवी जी को उनकी इस पुस्तक के माध्यम से ही समझा और जाना था। रसीदी टिकट पढ़ने से पहले तक मैं उनके गीत सुनती थी, जो मेरे ही क्या हर किसी सुनने वाले के मन को छूते रहें है और रहेंगे भी।

रसीदी टिकट पढ़ने के बाद मेरा कौतुहल बढ़ा कि मैं साहिर जी को पढूँ। मैंने अमृता जी की किताब और कुछ आलेखों को पढ़ा जिनमें उनके उस दौर के उनके कुछ नजदीकियों के हवाले से साहिर जी के व्यक्तिव के बारे में लिखा गया था |मैंने उनकी पुस्तक “तल्खियाँ “ भी पढ़ी | जिसे पढ़ कर मालूम हुआ कि वो कितने उम्दा उर्दू जानकार रहे होंगे.. तल्खियाँ अपने आप में साहिर जी के व्यक्तित्व का आईना ही है.. इस पुस्तक को आप जितनी बार पढ़ेंगे साहिर जी के एक अलग ही व्यक्तिव,अलग ही रुख से वाकिफ होंगे।

आज मैं अपने व्यक्तिगत तौर पर बताना चाहूँगी कि मुझे क्या लगता है उनके लेखन को पढ़ कर और उनके बारे में कही जा चुकी बातों को जान कर कि महान साहिर लुधियानवी जी का व्यक्तित्व कैसा रहा होगा।

सबसे पहला बिंदु जो है, वह यह है कि साहिर जी के नजदीकी लोगों का यह मानना रहा है,,,, साहिर जी के व्यक्तिव पर उनकी माता जी सरदार बेगम जी का बहुत प्रभाव रहा, साहिर जी की ज़िन्दगी के फैसले ख़ासकर उनकी ज़िन्दगी में आने वाली महिलाओं को ले कर.. उनकी माँ के प्रभाव से तय होते थे।

इस बिंदु से मैं सहमत हूँ.. बिल्कुल होते होंगे क्यूंकि माँ ही तो हर बच्चे की प्रथम गुरु है पहली पाठशाला है | और आप चाहे माने या ना माने परवरिश हर इंसान के चरित्र निर्माण की नींव होती है | उनकी माँ ने ज़ब साहिर छोटे थे तब अपने पति की दूसरी शादी करने के चलते अपने दाम्पत्य जीवन का त्याग किया और साहिर जी की परवरिश अकेले ही की,, तो ज़ाहिर है उनका अत्यधिक प्रभाव रहा होगा | एक स्त्री जो अपने पति की बेवफाई से पहले चोट खायी होगी वो कहीं ना कही उस पीड़ा को अलग हो कर भी नहीं भूली होगी और अपने बच्चे की परवरिश के समय जरूर उनका व्यवहार ऐसा रहा होगा जो साहिर जी को अंतर्मुखी बनने की पहली सीढ़ी रहा होगा..

मनोवैज्ञानिक तौर पर माँ बाप का नकारात्मक और क्षुब्ध व्यवहार बच्चे पर बहुत अधिक प्रभाव डालता है |
साहिर जी ने अपनी माँ को अकेलेपन और कष्टों से उनकी परवरिश करते देखा इसलिए वो अपनी माँ के प्रति हमेशा कृतज्ञ रहे और किसी अन्य को उनसे ज्यादा तवज्जो नही दे पाए,, जो बहुत बड़ा कारण रहा कि उनके किसी स्त्री से स्थायी संबंध नहीं रहे।
दूसरा बिंदु उनका प्रेमी व्यक्तिव…

जग जाहिर कि अमृता को देखते ही साहिर अपना दिल दे बैठे थे और अमृता भी,,, मगर अमृता का विवाहित होना,, उनका अलग धर्म होना.. कहीं ना कहीं कारण रहा होगा कि वो अमृता को अपने जीवन में ना ला सके,, और एक बार को मान भी ले कि वो उपरोक्त कारणों की परवाह करते तो कभी अमृता और उनके बीच खतों का सफर ना होता…मगर साहिर आदर्शवादी भी थे साथ ही अंतर्मुखी…जो अपने हाल ए दिल जुबां पर कभी नहीं ला पाये.. उन्हें अमृता से गहरी आत्मीयता और प्रेम तो था जिसे उन्होंने कई मर्तबा अपनी लेखनी से ज़ाहिर भी किया…जैसा कि मैंने तल्खियाँ किताब में उनकी लिखी रचना “कभी कभी “ की ये पंक्तियाँ पढ़ी..

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है

कि जिंदगी तेरी जुल्फों की नर्म छाओं में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तिरगी जो मेरी जीस्त का मुकद्दर है
तेरी नजर की शुआओं में खो भी सकती थी

अजब ना था कि मैं बेगाना ए आलम रहकर
तेरे जमाल की रअनाइयों में खो रहता
तेरा गुदाज़ बदन, तेरी नीम बाज़ आंखें
इन्हीं हसीन फसानों में,महव हो रहता

पुकारती मुझे जब तल्ख़ियां जमाने की
तेरे लबों से हलावत के घूंट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहना सर और मैं
घनेरी जुल्फों के साए में छुपके जी लेता

मगर ये हो न सका और अब यह आलम है
कि तू नहीं तेरा गम तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुजर रही है जिंदगी कुछ इस तरह जैसे
इसे किसी के सहारे की आरजू भी नहीं

जमाने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुजर रहा हूँ कुछ अनजानी रह गुजारों से
मुहिब साए मेरी सिम्त बढ़ते आते हैं
हयातो मौत के पुरहौल खारज़ारो से

न कोई जादह, न मंजिल न रोशनी का सुराग
भटक रही है ख़लाओं में जिंदगी मेरी
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊंगा कभी खोकर
मैं जानता हूं मेरी हम नफ़स मगर यूं ही

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है।

इस रचना की पहले तीन भागो में लिखी पंक्तियों में अमृता के प्रति साहिर की तलब और आत्मीयता बेबाकी से ज़ाहिर होती है,, उनकी ख़ामोशी उनकी कलम की स्याही अमृता के लिए हमेशा रही मगर वो कभी खुल कर अपने प्रेम को प्रदर्शित नहीं कर सके और ना ही अमृता का साथ दे सके जबकि अमृता साहिर से प्रेम के चलते अपना विवाहविच्छेद कर चुकी थी। इसके बावजूद साहिर अमृता को अपना नहीं सके।

मुझे लगता है अपनी माँ के प्रभाव (उनकी राय थी कि हिंदु और तलाकशुदा,, साथ में एक आजाद ख्याल की कवियत्री अच्छी बहु ना हो सकेगी )और उस समय के समाज ज़ब भारत विभाजन का समय भी रहा.. उस समय एक प्रसिद्ध मुस्लिम शायर और हिंदु कवियत्री का एक होना किसी को रास नहीं आता। धार्मिक विलगता के चलते साहिर के मन में जरूर डर होगा कि उनका अमृता को अपनाना उनके और उनकी माँ के लिए नुकसानदेह होगा.. इसलिए वो एक नाकाम प्रेमी साबित हुए और ताउम्र अपने दिल और दिमाग के दरमियान जूझते रहे। उपरोक्त रचना उनकी आंतरिक उपाहो,, अंतरद्वन्द का पुख्ता प्रमाण है।

उनकी माँ के बाद अमृता ही वो शख्स थी जो साहिर के दिलों दिमाग़ पर छाई रही। उन्होंने ज़ब भी कोई रुमानी प्रेमिल रचना लिखी (जो मैंने पढ़ी है उसके अनुसार ) उसमें अमृता का अक्स साफ नज़र आया।

साहिर मोहब्बत करते रहे निभा ना सके..उन्होंने एक बार लिखा था…

“तुम चली जाओगी परछाईयाँ रह जाएँगी..
कुछ न कुछ इश्क़ की रनाईयाँ रह जाएँगी!”

ये पंक्तियाँ उन्होंने एक मुशायरे में पढ़ी थी उस से पहले अमृता ने साहिर को आख़री खत लिखा था और पूछा था,”मैंने टूट के प्यार किया तुमसे,, क्या तुमने भी किया मुझसे!”

इस खत का जवाब उन्होंने नहीं दिया मुशायरे में अमृता के समक्ष ये दो पंक्तियाँ पढ़ी थी…जो ज़ाहिर करती है साहिर की अमृता के प्रति उनकी चाहत को और पीछे खींचते कदमों को भी।

साहिर जी के बारे में पढ़ते हुए यह भी जाना कि वो सहजता से हर बात नहीं कह पाते थे,, यह उनमें उनका अंतर्मुखी होना और आत्मविश्वास की कमी भी दर्शाता है।

साहिर जी खुद को हारा हुआ व्यक्ति मानते थे ख़ासकर प्रेम विषय में,, जिसकी झलकियाँ उनकी शायरी उनके गीतों में बखूबी दिखाई देती है,उनके एक गीत के बोल याद आ रहे है….

मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फिक्र को धुँए में उड़ाता चला गया

ये बहुत प्रसिद्ध गीत हुआ और आज भी मन को छूता है मगर इसमें उन्होंने अपने व्यक्तित्व के उस पक्ष को उजागर किया जिसमें वह ज़िन्दगी के मुताबिक चल रहे हैं ना कि स्वयं के मन मुताबिक।

उन्होंने खुद को तरल कर दिया और वक़्त की रौ में बह जाने दिया मगर यही बात उन्हें कहीं ना कहीं कसक भी करती थी। जिसकी टीस मुझे उन्ही की लिखी रचना “वाकया “ की पंक्तियों को पढ़ते हुए महसूस हुई…

अँधियारी रात के आंगन में ये सुबह के कदमों की आहट, ये भींगी भींगी सर्द हवा, ये हल्की-हल्की धुँधलाहट

गाड़ी में हूँ तनहा महवे सफर और नींद नहीं है आँखों में
भूले बिसरे रुमानों के ख़्वाबों की जमीं है आँखों में

अगले दिन हाथ हिलातें है,
पिछली पीतें याद आती है
गुमगश्ता खुशियाँ आँखों में,
आँसू बन कर लहराती है

सीने के वीरां गोशों में, इक़ टीस सी करवट लेती है
नाकाम उमंगे रोती है, उम्मीद सहारे देती है

वो राहें ज़हन में घूमती है,
जिन राहों से आज आया हूँ
कितनी उम्मीद से पहुंचा था,
कितनी मायूसी लाया हूँ

साहिर लुधियानवी एक ऐसा नाम है ऐसा व्यक्तित्व है जो सागर जैसा शांत मगर वैसा ही गहन, संतृप्त भी है…उनके बारे यह भी कहा जाता रहा है कि साहिर जी दूसरों के लिए ज्यादा सोचते थे करते थे, मुकाबले खुद के,, यह बात मुझे उनके निस्वार्थ होने का परिचय भी देती है |

साहिर जी के लेखन और व्यक्तित्व के बारे व्यख्या करना बेहद मुश्किल है क्यूंकि कि साहिर जी एक बार में समझे जा सके इतने सरल नहीं थे और समझे ही ना सके उतने कठिन भी नहीं है।

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